जुमा की फ़ज़ीलत 1

Barkati Kashana
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जुमुआ के इमामे की फ़ज़ीलत

    सरकारे दो आलम का इर्शादे गिरामी है: बेशक अल्लाह पाक और उस के फ़िरिश्ते जुमुआ के दिन इमामा बांधने वालों पर दुरूद भेजते हैं।

अल्लाह पाक और फ़िरिश्तों के दुरूद भेजने के मा'ना

    ऐ आशिकाने नमाज़ ! बयान कर्दा हदीसे पाक में अल्लाह पाक और उस के फ़िरिश्तों का जुमुआ के दिन इमामा शरीफ़ बांधने वालों पर दुरूद भेजने का ज़िक्र है याद रहे इस से मारूफ दुरूद मुराद नहीं बल्कि अल्लाह पाक का अपने बन्दों पर दुरूद भेजने का मतलब है रहमत नाज़िल फरमाना और फिरिश्तों के दुरूद भेजने का मतलब है इस्तिगफार करना


एक जुमुआ 70 जुमुओं के बराबर

    हज़रते इब्ने उमर  से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ने इर्शाद फ़रमाया इमामे के साथ एक जुमुआ के बिगैर इमामा के सत्तर जुमुओं के बराबर है


शिफा दाखिल होती है

    हज़रते अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद फ़रमाते हैं: जो शख्स जुमुआ के दिन अपने नाखून काटता है अल्लाह पाक उस से बीमारी निकाल कर शिफा दाखिल कर देता है।


दस दिन तक बलाओं से हिफ़ाज़त

    हज़रते मौलाना अमजद अली आज़मी फ़रमाते हैं: हदीसे पाक में है : जो जुमुआ के रोज़ नाखुन तरशवाये (यानी कटवाए) अल्लाह पाक उस को दूसरे जुमुए तक बलाओं से महफूज रखेगा और तीन दिन ज़ाइद या'नी दस दिन तक। एक रिवायत में येह भी है कि जो जुमुआ के दिन नाखुन तरशवाये (यानी कटवाए) तो रहमत आएगी गुनाह जाएंगे।


रिज़्क में तंगी का एक सबब

    हज़रते अल्लामा मुफ्ती मुहम्मद अमजद अली आज़मी फ़रमाते हैं: जुमुआ के दिन नाखुन तरशवाना मुस्तहब है, हां अगर ज़ियादा बढ़ गए हों तो जुमुआ का इन्तिज़ार न करे कि नाखुन बड़ा होना अच्छा नहीं क्यूं कि नाखूनों का बड़ा होना तंगिये रिज़्क़ का सबब है। (बहारे शरीअत, 3/225, हिस्सा : 16)


फ़िरिश्ते खुश नसीबों के नाम लिखते हैं।

    मुस्तफा जाने रहमत का इर्शादे गिरामी है : "जब जुमुआ का दिन आता है तो मस्जिद के दरवाज़े पर फ़िरिश्ते आने वाले को लिखते हैं, जो पहले आए उस को पहले लिखते हैं, जल्दी आने वाला उस शख्स की तरह है जो अल्लाह पाक की राह में एक ऊंट सदका (यानी खैरात) करता है, और इस के बाद आने वाला उस शख्स की तरह है जो एक गाय सदका करता है, इस के बाद वाला उस शख्स की मिस्ल है जो मेंढा सदका करे, फिर उस की मिस्ल है जो मुर्गी सदका करे, फिर उस की मिस्ल है जो अन्डा सदका करे और जब इमाम (खुत्बे के लिये) बैठ जाता है तो वोह (यानी फ़िरिश्ते) आ'माल नामों को लपेट लेते हैं और आ कर खुत्बा सुनते हैं।" (929:319/1-6)


शर्हे हदीस

    हज़रते मुफ्ती अहमद यार खान परमाते हैं बाज़ उलमा ने फरमाया कि मलाएका जुमुआ की तुलूए फज्र से खड़े होते हैं, बाज़ के नज़दीक आफ्ताब चमकने (यानी सूरज निकलने) से, मगर हक येह है कि सूरज ढलने (यानी इब्तिदाए वक्ते जोहर) से शुरू होते हैं क्यूं कि उसी वक्त से वक्ते जुमुआ शुरू होता है, मालूम हुआ कि वोह फरिश्ते सब आने वालों के नाम जानते हैं, ख्याल रहे कि अगर अव्वलन सो (100) आदमी एक साथ मस्जिद में आएं तो वोह सब अव्वल (यानी पहले आने वाले) हैं।


पहली सदी में जुमुआ का जज्बा

    हज़रते इमाम मुहम्मद बिन मुहम्मद बिन मुहम्मद गज़ाली फ़रमाते हैं: पहली सदी में सहरी के वक्त और फज्र के बाद रास्ते लोगों से भरे हुए देखे जाते थे, वोह चराग़ लिये हुए (नमाज़े जुमुआ के लिये) जामेअ मस्जिद की तरफ जाते गोया ईद का दिन हो, यहां तक कि नमाज़े जुमुआ के लिये जल्दी जाने का सिल्सिला ख़त्म हो गया। पस कहा गया कि इस्लाम में जो पहली बिद'अत जाहिर हुई वोह जामेअ मस्जिद की तरफ जल्दी जाना छोड़ना है। अफसोस मुसलमानों को किसी तरह यहूदियों से हया नहीं आती कि वोह लोग अपनी इबादत गाहों की तरफ हफ्ते और इतवार के दिन सुबह सवेरे जाते हैं। नीज़ दुन्या की कमाई चाहने वाले खरीदो फरोख्त और दुन्यावी नफअ हासिल करने के लिये सवेरे सवेरे बाज़ारों की तरफ चल पड़ते हैं तो आखिरत तलब करने वाले इन से मुकाबला क्यूं नहीं करते !

    सहाबी इब्ने सहाबी हज़रते अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत है कि सरकारे दो आलम ने इर्शाद फरमाया : जूमा की नमाज़ मसाकीन का हज है।" और दूसरी रिवायत में है कि यानी "जुमा की नमाज़ गरीबों का हज है। 


जुमुआ के लिये जल्दी निकलना हज है

    अल्लाह पाक के आखिरी रसूल ने इर्शाद फ़रमाया : "बिला शुबह तुम्हारे लिये हर जुमुआ के दिन में एक हज और एक उमरह मौजूद है, लिहाजा जुमुआ की नमाज़ के लिये जल्दी निकलना हज है और जुमुआ की नमाज के बाद अस्र की नमाज़ के लिये इन्तिज़ार करना उमरह है।


हज व उमरह का सवाब

    हज़रते इमाम मुहम्मद बिन मुहम्मद बिन मुहम्मद गजाली फ़रमाते हैं: (नमाज़े जुमुआ के बाद) अस्र की नमाज़ पढ़ने तक मस्जिद ही में रहे और अगर नमाज़े मग़रिब तक ठहरे तो अफ़ज़ल है। कहा जाता है। कि जिस ने जामेअ मस्जिद में (जुमुआ अदा करने के बाद वहीं रुक कर) नमाज़े अस्र पढ़ी उस के लिये हज का सवाब है और जिस ने (वहीं रुक कर) मग़रिब की नमाज़ पढ़ी उस के लिये हज और उम्रे का सवाब है। (249/11) जहां जुमुआ पढ़ा जाता है उस को "जामेअ मस्जिद" बोलते है।

सब दिनों का सरदार

    हम गुनाहगारों की शफाअत फरमाने वाले मक्की मदनी मुस्तफा का फरमाने आलीशान है : "जुमुआ का दिन तमाम दिनों का सरदार है और अल्लाह पाक के नज़दीक सब से बड़ा है और वोह अल्लाह पाक के नज़दीक ईदुल अदहा और ईदुल फित्र से बड़ा है। इस में पांच खुसुसियतें हैं (1) अल्लाह पाक ने इसी में आदम को पैदा किया और (2) इसी में ज़मीन पर उन्हें उतारा और (3) इसी में उन्हें वफात दी और (4) इस में एक साअत (यानी घड़ी) ऐसी है कि बन्दा उस वक्त जिस चीज़ का सुवाल करेगा वह उसे देगा जब तक हराम का सुवाल न करे और (5) इसी दिन में कियामत काइम होगी। कोई मुकर्रब फिरिश्ता व आस्मान व जमीन और हवा व पहाड़ और दरिया ऐसा नहीं कि जुमुआ के दिन से डरता न हो।"

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