हुजूर के अहले बैत में एक बड़ी हस्ती, इमाम आली मुकाम सैय्यदुना हुसैन رضي الله عنه, बड़े मर्तबे के मालिक हैं। उनको सहाबा और अहले बैत के तौर पर भी जाना जाता है, यानी वो हुजूर के प्यारे बेटे और नवासे हैं। वो रात भर इबादत और कुरान की तिलावत करने वाले, मुत्ताकी, बुज़ुर्ग और मज़हबे इस्लाम के लिए गला कटवाने वाले शहीद हैं। करबला के मैदान में जालिमों ने मुहर्रम के 10 तारीख को जुमुआ के दिन, 61 हिजरी में, हुजूर के विसाल के करीब 50 साल बाद हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों और घरवालों को 3 दिन प्यासा रख कर शहीद कर दिया।
मुहर्रम में क्या जाइज़ है? जानिए मुहर्रम के अहकाम और मसाइल
नियाज़ और फातिहा
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- नियाज़ और फातिहा किसी भी हलाल और जायज़ खाने पीने की चीज़ पर हो सकती है, इस के लिए शरबत और खिचड़े, मलिदे को ज़रूरी ख़्याल करना जहालत है, अलबत्ता इन चीज़ों पर फातिहा दिलाने में भी कोई हर्ज नहीं, अगर कोई इन सब चीज़ों पर फातिहा दिलाता है तो वो कुछ बुरा नहीं करता, हाँ, जो इन्हें ज़रूरी ख़्याल करता है और इन के अलावा किसी और खाने पीने की जायज़ चीज़ों पर मुहर्रम की फातिहा सही नहीं मानता वो ज़रूर जाहिल है।
- नियाज़ और फातिहा में शेखी खोरी नहीं होनी चाहिए। सब कुछ सिर्फ अल्लाह वालों के ज़रिए अल्लाह पाक की नज़दीकी और क़ुर्ब हासिल करने के लिए होना चाहिए। मोहब्बत अल्लाह के नेक बंदों से इसलिए की जाती है कि उनकी मोहब्बत से अल्लाह राज़ी होता है। अल्लाह को राज़ी करना हर मुसलमान की ज़िंदगी का असली मक़सद है।
- नियाज़, फातिहा और बुज़ुर्गों की या बुढ़ों की जो मुसलमानों में राइज़ हैं, ऐसा करना मुसलमानों के लिए जाइज़ और अच्छे काम है, लेकिन फ़र्ज़ या वाजिब नहीं। इनको न करने वाला गुनाहगार नहीं है, लेकिन उनसे रोकने और मना करने वाला गुमराह-ओ-बद-मज़हब और बुज़ुर्गों के नाम से जलने वाला है।
- "नियाज़ और फातिहा के लिए बाल बच्चों को तंग करने या किसी को परेशान करने की या खुद परेशान होने की या उन कामों के लिए क़र्ज़ा लेने की कोई ज़रूरत नहीं। जैसा और जितना मौका हो उतना करें, और कुछ भी न हो तो खाली कुरान या कलमा तय्यबा या दुरूद शरीफ़ वगेरह का ज़िक्र करके या नफ़्ल नमाज़ या रोज़े रखकर सवाब पहुँचाया जाए तो ये भी काफ़ी है। और मुकम्मिल नियाज़ और पूरी फातिहा है, जिस में कोई कमी, यानी शरीयती ख़ामी नहीं है। ख़ुदा-ए-ता'ला ने इस्लाम के ज़रिये बंदों पर उनकी ताक़त से ज़्यादा बोझ नहीं डाला। ज़कात हो या सदक़ा फित्र और क़ुर्बानी सिर्फ उन्हें पर फर्ज ओ वाजिब हैं जो साहिब-ए-निसाब, यानी शरीयती तौर पर मालदार हों। हज्ज भी उस पर फर्ज किया गया जिस के बस की बात हो, अक़ीक़ा और वालिमा उन्हें के लिए सुन्नत हैं जिन का मौक़ा हो जब के ये काम फर्ज ओ वाजिब और सुन्नत हैं। और नियाज़ ओ फातिहा, 'उर्स वगैरह' तो सिर्फ बिद'त-ए-हसनह, यानी सिर्फ़ अच्छे और मुस्तहब्ब काम हैं, फर्ज ओ वाजिब नहीं हैं, यानी शरीयती तौर पर लाज़िम ओ ज़रूरी नहीं हैं। फिर नियाज़ ओ फातिहा के लिए क़र्ज़े लेने, परेशान होने और बाल बच्चों को तंग करने की क्या ज़रूरत है, बलके हलाल कमाई से अपने बच्चों की परवरिश करने, बज़ाते ख़ुद एक बड़ा कार-ए-ख़ैर, यानी सवाब का काम है। खुलासा ये है के उर्स, नियाज़, फातिहा, इत्यादि, बुजुर्गों की याद मनाने की जो लोग मुखालिफ़त करते हैं, वो ग़लती पर हैं और जो लोग सिर्फ़ इन कामों को ही इस्लाम समझे हुए हैं और शरीयती तौर पर इन्हें लाज़िम ओ ज़रूरी ख़याल करते हैं, वो भी बड़ी भूल में हैं।"
- नियाज़ और फ़ातिहा की हो या कोई और खाने पीने की चीज़, उसको लुटाना, भीड़ में फेंकना, कि उनकी बेअदबी हो, पैरों के नीचे आए या नाली वगेरह गंदी जगहों पर गिरे, एक ग़लत तरीक़ा है, जिस से बचना ज़रूरी है, जैसा के मुहर्रम के दिनों में कुछ लोग पूरी, गुलगुले या बिस्किट वगेरह छतों से फेंकते और लुटाते हैं, ये ना मुनासिब हरकतें हैं।
- "नियाज़-ओ-फ़ातेहा" यानी बुज़ुर्गों को उनके विसाल के बाद या आम मुर्दों की रूह को उनके मरने के बाद सवाब पहुंचाने का मतलब सिर्फ़ यही नहीं के खाना पीना सामने रख कर और क़ुरआन क़रीम पढ़ कर इसाल-ए-सवाब कर दिया जाए, बल्के दूसरे दीनी, इस्लामी या आम मुसलमानों को नफ़ा पहुंचाने वाले काम कर के उनका सवाब भी पहुंचाया जा सकता है।
जैसे किसी ग़रीब बीमार का इलाज करा देना, किसी बाल-बच्चे दार बेघर मुसलमान का घर बनवा देना। किसी बेक़सूर कैदी की मदद करके जेल से रिहाई दिलाना। जहां मस्जिद की ज़रूरत हो वहां मस्जिद बनवा देना। अपनी तरफ़ से इमाम और मुएज़्ज़िन की तंख़्वा जारी कर देना। मस्जिद में नमाज़ियों की ज़रूरतों में ख़र्च करना। इल्म-ए-दीन हासिल करने वालों या इल्म फैलाने वालों की मदद करना। दीनी किताबें छपवा कर तकसीम करना। दीनी मदरसे चलाना। रस्ते और सड़कें बनवाना या उन्हें सही करना। रास्तों में राहगीरों की ज़रूरत के काम करना, वगैरह वगैरह।
ये सब ऐसे काम हैं के उन्हें कर के या उन पर खर्च कर के, बुज़ुर्गों या बड़े बूढ़ों के लिए इसाले-सवाब की नियत कर ली जाए तो ये भी एक किस्म की बेहतरीन नियाज़-ओ-फातिहा है, जिंदों और मर्दों सभी का इसमें नफ़ा और फ़ायदा है।
हदीस-ए-पाक में है के हुजूर पाक के एक सहाबी हज़रत सअद इब्न अबदाह (رضي الله عنه) की माँ का विसाल हुआ तो वो बरगाह-ए-रिसालत में हाज़िर हुए और अर्ज किया: या रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! मेरी माँ का इंतिक़ाल हो गया है, तो कौनसा सदक़ा बेहतर रहेगा। सरकार (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया: पानी बेहतर रहेगा। उन्होंने एक कुंवां खुदवा दिया और उसके क़रीब खड़े होकर कहा: 'हाज़िही लि उम्मी सअद' (ये कुंवां मेरी माँ के लिए है)। मिशकात बाब फ़द्ल-ए-सदक़ाह: 169। यानी जो लोग इस से पानी पियें, उसका सवाब मेरी माँ को पहुंचता रहे।
शरहीन-ए-हदीस फ़रमाते हैं: हज़ूर ने पानी इसलिए फ़रमाया के मदीना तय्यिबा में पानी की किल्लत थी, पीने का पानी ख़रीदना पड़ता था, ग़रीबों के लिए दिक्कत का सामना था, इसलिए हज़ूर ने हज़रत सअद से कुंवा खोदने के लिए फ़रमाया। इस हदीस से यह बात साफ़ हो जाती है के मुर्दों को कार-ए-ख़ैर का सवाब पहुंचता है, और यह के जिस चीज़ का सवाब पहुंचाना हो, उस खाने पीने की चीज़ को सामने रख कर यह कहने में कोई हरज नहीं के इस का सवाब फ़लान को पहुंचे, क्योंकि हज़रत साद ने कुंवा ख़ुदवा कर कुंवे की तरफ़ इशारा कर के यह अल्फ़ाज़ कहे थे, लेकिन इस को ज़रूरी भी नहीं समझना चाहिए के खाना पानी सामने रख कर यही इसाल-ए-सवाब ज़ाईज़ है, दूर से भी कह सकते हैं, और कुछ न कहें दिल में कोई नेक काम कर के या कुछ पढ़ कर या खिला पिला कर किसी को सवाब पहुंचाने की नियत कर ले तब भी काफ़ी है। अल्लाह तआला सवाब देने वाला है, वो दिलों के अहवाल से ख़ूब वाक़िफ़ है। ये सब तरीक़े दुरुस्त हैं, उन में से जो किसी तरीक़े को ग़लत कहे वोही ख़ुद ग़लत है।