मुहर्रम में क्या जायज़ पार्ट 2

Barkati Kashana
0

    ज़रत सैयदना इमाम हुसैन (रज़िअल्लाहू अनहु) और दूसरे हज़रत अहल-ए-बैत करम का ज़िक्र नज़्म में या नस्र में करना और सुनना यक़ीनन जाइज़ है, और बा'इस-ए-ख़ैर और बरक़त और नुज़ूल-ए-रहमत है, लेकिन इस सिलसिले में नीचे लिखी हुई चंद बातों को ध्यान में रखना ज़रूरी है।



  1. ज़िक्र-ए-शहादत में सहीह रिवायत और सच्चे वाकियात बयान किये जाएं। आज कल कुछ पेशावर मुक़र्रिरूं और शायरों ने अवाम को खुश करने और तक़रीरों को जमाने के लिए अजीब-अजीब किस्से और अनोखी निराली हिकायत और गढ़ी हुई कहानियां और करामात बयान करना शुरू कर दिया है, क्यूँके आवाम को ऐसी बातें सुनने में मज़ा आता है, और आज कल के अक्सर मुक़र्रिरों को अल्लाह और रसूल से ज्यादा आवाम को खुश करने की फिक्र रहती है, और जाहिरी तौर पर इस झूठ में मज़ा ज़्यादा है और जलसे ज्यादातर अब मज़ेदारियों के लिए ही होते हैं। आला हज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा खान (रहमतुल्लाह अलैह) फरमाते हैं: 'शहादत नामे, नज़्म या नस्र जो आज कल आवाम में राज हैं, अक्सर रिवायाते बातिला (गलत रिवायत) बे-सरो-पासे मम्लूल और अकाज़िब मौजूआ पर मुश्तमिल हैं, ऐसे बयान का पढ़ना और सुनना, वो शहादत नामा हो, ख्वाह कुछ और मजलिस मिलाद में हो, ख्वाह कहीं और मुतलक़न हराम ओ ना-जाएज़ है। [फ़तावा रिजवीया जिल्द 24, सफा 514, मतबुआ रज़ा फ़ॉउंडेशन लाहौर ] और इसी किताब के सफ़ह 522 पर इतना और है: यूंही मरसिये, ऐसी चीज़ों का पढ़ना सुनना सब गुनाह और हराम है। हदीस पाक में है: 'नहा रसूलुल्लाह अल्लाही 'अनिल मरसी।' रसूलुल्लाह  ﷺ ने मर्सियों से मना फरमाया।
  2. जिक्र-ए-शहादत का मकसद उन वाक़िआत को सुन कर इबरत ओ नसीहत हासिल करना हो, और साथ ही साथ सालिहीन के जिक्र की बरकत हासिल करना भी, रोने और रुलाने के लिए वाक़िआते करबला बयान करना ना ज़ाइज़ ओ गुनाह है। इस्लाम में 3 दिन से ज़्यादा मय्यत का सोग ज़ाइज़ नहीं। आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान बरेलवी फ़रमाते हैं: "शरीअत में औरत को शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन सोग मनाने का हुक्म दिया है, औरों की मौत के तीसरे दिन तक इजाज़त दी है, बाक़ी हराम है, और हर साल सोग की ताजदीद (यानी हर साल ग़म ताजा करना) तो किसी के लिए हलाल नहीं। [फ़तावा रज़विय्या जिल्द 24, सफह: 495।]

और रोना रुलाना सब राफ़िज़ियों के तोर तरीक़े हैं, क्यूंकि इन की क़िस्मत में ही यह लिखा हुआ है। राफ़िज़ी ग़म मनाते हैं और ख़ारिजी ख़ुशी मनाते हैं, और सुन्नी, वाक़ियत क़रबला से नसीहत-ओ-इब्रत हासिल करते हैं, और दीन की ख़िदमत के लिए क़ुर्बानियाँ देते हैं और मुसीबतों पर सब्र करने का सबक लेते हैं और उन के ज़िक्र की बरक़त और फ़ैज़ पाते हैं। हां, अगर इन की मुसीबतों को याद कर के ग़म हो जाए या आंसू निकल आए तो यह मोहब्बत की पहचान है। मतलब यह है के एक होता है ग़म मनाना और ग़म करना, और एक होता है ग़म हो जाना, ग़म मनाना और करना ना ज़ाइज़ है, और ध्यान आने पर ख़ुद-बख़ुद ग़म हो जाए तो ज़ाइज़ है।

                

मुहर्रम में क्या जायज़ पार्ट 1


Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)