मसनूई और फ़र्ज़ी करबलाएँ:
करबला इराक में उस जगह का नाम है जहाँ हज़रत इमाम अली मक़ाम अपने साथियों के साथ यज़ीदी फ़ौजों के ज़रिए शहीद किए गए। अब जहाँ ताजिया जमा और फिर दफ़्न किए जाते हैं, उन जगहों को लोग करबला कहने लगे, मज़हब इस्लाम में उन फ़र्ज़ी क़र्बलाओं की कोई हैसियत नहीं, उन्हें मुक़द्दस मक़ाम ख़याल कर के उन का इहतराम करना सब रफ़ाज़ियत और जाहिलात की पैदावार हैं। आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान बरेलवी फ़रमाते हैं अलम-वा-ताजिया, मेहँदी उन की मन्नत गश्त चढ़ावा, ढोल ताशे, माजिरे, मार्सिये, मतम मस्नूई (फ़र्ज़ी) करबला जाना, ये सब बातें हराम ओ ना जायेज़ और गुनाह हैं।' (फ़तावा रज़विय्याह, जिल्द 24, सफ़ह 496)
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कुछ जगहों पर औरतें रात को चिराग़ लेकर करबला जाती हैं और ख़याल करती हैं के जिस का चिराग़ जलते हुए पहुंच गया उस की मुराद पूरी होगी, ये सब जाहिलाना बातें हैं। ऐसी वहम-परस्ती की इस्लाम में कोई गुंजाइश नहीं है।
इमाम बड़े:
जहाँ ताजिये को रखते हैं उस इमारत को इमाम बड़ा कहते हैं, यह इमाम बड़े बनाना और उनकी ताज़ीम करना यह सब रफ़्ज़ी फिरका की देन है, इमाम बड़े की कोई शरीआती हेसियत नहीं, उनकी ज़मीनें किसी बाल-बच्चे दार, बे-घर, ग़रीब मुसलमान को दी जाएं और उस का सवाब हज़रत इमाम अली मकाम की रूह पाक को इसाल-ए-सवाब कर दिया जाएगा तो यह एक इस्लामी काम होगा। या वहाँ ज़रूरत हो तो मस्जिद बनाई जाए या मुसलमानों के लिए क़ब्रिस्तान या मुसाफ़िर ख़ाना वगैरह जिस से क़ौम को नफ़ा पहंचे, तो निहायत उम्दा बात है। आ'ला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ान फजीले-बरेलवी फ़रमाते हैं: इमाम बड़ा वक़्फ़ नहीं हो सकता, जो उसने बनाया वह इसी की मालकियत है, जो चाहे करे वह नहीं रहा तो उस के वारिसों की मुल्क है उन्हें इख्तियार है।" (फ़तावा रज़वीय्या, जिल्द 6, सफ़ा: 121)
बच्चों को फ़क़ीर बनाना:
कहीं-कहीं हजरत इमाम हुसैन के नाम पर बच्चों को फ़क़ीर बनाया जाता है और उनके गले में झूली डाल कर घर-घर उनसे भीक मांगवाते हैं, यह भी नाज़ाइज़ और गुनाह है। आला हज़रत फ़रमाते हैं: "यूं ही फ़क़ीर बनकर, बिला ज़रूरत और मजबूरी भीक मांगना हराम है। बहुत सी हदीसें इस मानी पर नातिक़ हैं और ऐसों को देना भी हराम है।" [फ़तावा रजविय्या, जिल्द 24, सफ़ा: 494]
इमाम कासिम की मेहंदी:
हज़रत इमाम कासिम, इमाम हुसैन (رضی اللہ تعالٰی عنہ) के भतीजे और हज़रत इमाम हसन (رضی اللہ تعالٰی عنہ) के फ़र्ज़ंद अर्जमंद हैं। करबला में अपने चाचा बुज़ुर्गवर के साथ बहुत से ज़ालिमों को मारकर फ़ी अल-नार किया, फिर ख़ुद शहीद किए गए। बात सिर्फ़ इतनी है के हज़रत इमाम हुसैन की एक सहाबज़ादी से उनकी निस्बत तय हो चुकी थी, निकाह से पहले ही करबला का वाक़िआ दर्याफ्त हुआ। इतनी सी बात को लोगों ने अफ़साना बनाया और कहा के करबला में ही उनकी शादी हुई और वो दूल्हा बने, उनकी मेहंदी लगी और मेहंदी कहीं से 7 तारीख और कहीं 8 तारीख और कहीं 13 के मेले तमाशे और ढोल धमाके बन गए। बांस की खपचियों और पानी वक़ागुज़ के छोटे छोटे खिलौने बनाए जाते हैं और उनका नाम जाहिलूं ने मेहंदी रखा दिया। और मुसलमानों में से वो लोग जिन का मिज़ाज तमाशई था, उन्हों ने अपने ज़ौक़ की चश्नी खेलने और तमाशे व मेले करने के लिए हज़रत इमाम कासिम (رضی اللہ تعالٰی عنہ) की मुबारक शख़्सियत को आर बनाया।
भाइयों! ये तमाशे कब तक करोगे, कुछ मरने के बाद की और अख़िरत की भी फ़िक्र है। तक़रीरों के ज़रिए लम्बे लम्बे नज़राने इंथनये वाले अफ़साना गो ख़ुत्बौं को भी रंग भरने का खूब मौक़ा मिला और नई दुल्हन के सामने दूल्हा की शहादत रोने और रुलाने और धारें मारने का बहाना बन गया, और शायरों की मर्सिया निगारी ने इस झूठी बात को कहाँ से कहाँ तक पहुँचा दिया।
खुलासा यह है के मेहंदी की रस्म और उस से मुताल्लिक़ वाक़िआ सब मंगरनात और फ़जूलियत से है, और इस के नाम पर जो कुछ ख़राफ़तियाँ और जाहिलाना हरकतें होती हैं, ये सब नाज़िज़, गुनाह और हराम हैं। आला हज़रत इमाम अहले सुन्नत मौलाना अहमद रज़ा खान बरेलवी फ़रमाते हैं: ताज़िया, मेहंदी, शब-ए-अशूरा को रौशनी करना बिद'त और नाज़यज़ है। हज़रत सैयदना इमाम कासिम के साथ करबला में हज़रत सैयदना इमाम हुसैन की सहाबज़ादी की शादी का वाक़िआ साबित नहीं है, किसी ने गढ़ा है। [फ़तावा रज़विय्या जिल्द 24 सफ़ह: 501, 500]
चहल्लुम का बयान:
सफर के महीने की 20 तारीख को हज़रत सैयदना इमाम हुसैन (रज़िअल्लाहु अन्हु) के चहल्लुम के नाम पर भी खूब मेले, तेले और तमाशे लगाए जाते हैं। ताजिये बना कर बाजों, ताशों के साथ घुमाए जाते हैं। इस सिलसिले में पहली बात तो यह है के चहल्लुम या चालीसवां इस नयाज़, वफ़ात, हयात, व इसाल-ए-सवाब को कहते हैं जो इंतेक़ाल के चालीसवां दिन या कुछ आगे पीछे किया जाए। लेकिन जिसकी शहादत को सारे चौदह सौ साल हो चुके हों, उसका चहल्लुम अब होना समझ में नहीं आता। आरस वी बरसी तो हर साल होते हैं, लेकिन चालीसवां या चहल्लुम हर साल होना ताज्जुब की बात है। फिर भी चुन के नयाज़-ओ-फ़ातिहाह वगैरह जाएज़ काम हर दिन जाएज़ व हलाल हैं, 20 सफर को भी किए जाएँ तो गुनाह नहीं बल्कि सवाब है, लेकिन चहल्लुम के नाम पर भी जो खुराफ़ात और तमाशे होते हैं उनसे इस्लाम मज़हब का दूर का भी वास्ता नहीं है। बात दरअसल यह है के जब एक मेले और तमाशा से पेट नहीं भरा तो मौज-ओ-मस्ती करने के लिए एक दिन और बड़ा लिया, क्यूँ के खेल तमाशे ऐसी चीज़ें हैं के तमाशा पसंद लोग चाहते हैं के ये तो रोज़ाना हों तो और भी अच्छा है, और नमाज़, रोज़ा वगैरह क़ुरआन की तिलावत में उन्हें का ध्यान लगता है जो ख़ुदा से डरते हैं और आख़िरत दामोत की फ़िक्र रखते हैं।
खुलासा यह है के इस राये जा चहल्लुम का मतलब यही समझा जा सकता है के हज़रत इमाम हुसैन की यादगार मनाने का बहाना बना कर खेल तमाशों, ढोल बाजों के लिए एक दिन और बड़ा लिया गया है।
काले और हरे कपड़े पहनना या हरी टोपी ओढ़ना:
मुहर्रम में यह हरे काले कपड़े गम और सोग मनाने के लिए पहने जाते हैं और सोग इस्लाम में हराम है, इस के अलावा सोग की और बातें भी कुछ राइज हैं, जैसे मुहर्रम में शुरू के दस दिन कपड़े नहीं बदलना, दिन में रोटी नहीं पकाना, झाड़ू नहीं लगाना, माह-ए-मुहर्रम में बियाह शादी को बुरा समझना, सब फ़ाज़ूल बातें और जाहिलत ओ रफ़्ज़िएत की पैदावार खुराफ़ातें हैं। आला हज़रत फ़रमाते हैं:
यूँ ही अशुरा मुहर्रम के सब्ज़ (हरे) रंगे हुए कपड़े भी नाज़ाइज़ हैं, ये भी सोग की ग़र्ज़ से हैं। अशुरा मुहर्रम में तीन रंगों से बचे सियाह (काला) सब्ज़ (हरा) सुर्ख फ़तवा रज़विय्या जिल्द 24:492।
सवारी निकालना:
बाज़ जगह अश्रय मुहर्रम में सवारियां निकाली जाती हैं और उन के साथ तरह-तरह के तमाशे और ड्रामे होते हैं, वो भी नाज़ाइज़ ओ गुनाह हैं। खुदाए ता'ला मुसलमानों को सही मानी में इस्लाम को रखने और उस पर चलने की तौफ़ीक़ अता फरमाए।"