बिस्मिल्लाह की अहम मालूमात

Barkati Kashana
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 बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर-रहीम: पारा 19, सूरह-नमल की तिसवीं आयत का हिस्सा भी है और अलग से कुरान मजीद की एक पूरी आयते मुबारका भी, जो के दो सूरतों के माबैन फासला के लिए उतारी गई।


बिस्मिल्लाह शरीफ की बरकत:

    हजरत जाबिर बिन अब्दुल्लाह (रज़िअल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं: जब 'बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर-रहीम' नाजिल हुई तो बादल मशरिक की तरफ दौड़े, हवाएँ सकिन हो गईं, समुंदर जोश में आ गया, चौपायौं ने गौर से सुनने के लिए अपने कान लगा दिए और शैतानों को आसमानों से पत्थर मारे गए। अल्लाह पाक ने फरमाया: 'मुझे मेरी इज्जत ओ जलाल की क़सम! जिस चीज़ पर 'बिस्मिल्लाहिल-रहमानिर-रहीम' पढ़ी गई, मैं उसमें बरकत दूंगा।

    हजरत सफवान बिन सालिम (रज़िअल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं: "इंसान के साज़ो-समान और लिबास को जिन्नात इस्तेमाल करते हैं। इसलिए तुम में से जब कोई शख्स कपड़े पहनने के लिए (उठाए या उतार कर) रखे तो 'बिस्मिल्लाह शरीफ' पढ़ लिया करे। उन के लिए अल्लाह पाक का नाम मोहर है। (यानी बिस्मिल्लाह पढ़ने से जिन्नात उन कपड़ों को इस्तेमाल नहीं करेंगे।)


बिस्मिल्लाह दुरुस्त पढ़िए:

    बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर-रहीम' पढ़ने में दुरुस्त मखरिज से हरूफ की अदाइगी लाज़मी है। और कम अज़ कम इतनी आवाज़ भी ज़रूरी है के रुकावट न होने की सूरत में अपने कानों से सुन सकें। जल्द बाज़ी में बाज़ लोग हूरूफ चबा जाते हैं। जान-बूझ कर इस तरह पढ़ना ममनू है और मानी फासिद (यानी ख़राब) होने की सूरत में गुनाह। लिहाज़ा जल्दी जल्दी पढ़ने की आदत की वजह से जो लोग ग़लत पढ़ डालते हैं वो अपनी इस्लाह कर लें। नीज़ जहाँ पूरी पढ़ने की कोई ख़ास वजह मौजूद न हो वहाँ सिर्फ 'बिस्मिल्लाह' कह लेना भी दुरुस्त है।


बिस्मिल्लाह किजिए कहना ममनू है:

    बाज़ लोग इस तरह कह देते हैं, 'बिस्मिल्लाह कीजये!' आओ जी, बिस्मिल्लाह! मैंने बिस्मिल्लाह कर डाली। ताजिर हज़रात जो दिन में पहला सामान बेचते हैं, उस को आम तौर पर बोहनी कहा जाता है मगर बाज़ लोग इस को भी 'बिस्मिल्लाह' कहते हैं, मसलन, 'मेरी तो आज अभी तक बिस्मिल्लाह ही नहीं हुई!' जिन जुमलों की मिसालें पेश की गई हैं, ये सब ग़लत अंदाज़ हैं। इसी तरह खाना खाते वक़्त अगर कोई आ जाता है तो अक्सर खाने वाला उस से कहता है, आइये आप भी खा लीजिये, आम तौर पर जवाब मिलता है, 'बिस्मिल्लाह' या इस तरह कहते हैं, 'बिस्मिल्लाह कीजिये!' बहार-ए-शरिअत, हिस्सा 16, सफ्हा 32 पर है के 'इस मौक़े पर इस तरह बिस्मिल्लाह कहने को उलमा ने बहुत सख्त ममनू क़रार दिया है। हां ये कह सकते हैं, 'बिस्मिल्लाह' पढ़ कर खा लीजिये। बल्के ऐसे मौक़े पर दुआईया अल्फ़ाज़ कहना बेहतर है, मसलन बारक अल्लाहु लना व लकुम, यानी अल्लाह पाक हमें और आपको बरकत दे। या अपनी मादरी ज़ुबान में कह दीजिए। अल्लाह पाक बरकत दे।

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