इब्ने तैमिया: इब्ने तैमिया (1263-1328 ई.स.) ने अपनी किताब "इक़्तिदाउस सिरातुल मुस्तक़ीम लि मुखालिफाति अशाबिल जहीम" (404 पेज) में लिखा है कि "मिलाद शरीफ की ताज़ीम और उसको शीआर बना लेना कुछ लोगों का अमल है और उसमें अज्रे अज़ीम भी है क्योंकि उनकी नियत नेक है और रसूले अक्रम ﷺ की ताज़ीम भी है।
Is Article Ko Roman English Me Padhne Ke Liye Idhar Click Kijiye
शेख अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी: वो इब्ने जौज़ी (510-579 हिज्री) कहते हैं कि हुज़ूर नबी अक्रम ﷺ की विलादत बा सआदत के मौके पर ख़ुशी मनाने के अजर में अबू लहब के आज़ाब में ताख़्फ़ीफ़ कर दी जाती है जिसकी मज़म्मत क़ुरआन में हक़ीम में सूरत नज़िल हुई है। तो उम्मते मुहम्मदियाह के उस मुसल्मान को मिलने वाले अजर और सवाब का क्या आलम होगा जो आप ﷺ के मिलाद ख़ुशी मनाता हो और आप ﷺ की मोहब्बत और इश्क़ में हस्बे इस्तितात खर्च करता है...? ख़ुदा की क़सम मेरे नज़दीक़ अल्लाह पाक ऐसे मुसल्लमान को अपने महबूब ﷺ की ख़ुशी मनाने के तूफ़ैल अपने फ़ज़ल के साथ अपनी नेमतों भरी जन्नत आता फ़रमाएगा। (अब्दुल हक़ "मा' सबता मिन्स सुन्नह फी अय्यामि सुन्नह" पेज 60)
शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी (1159-1239): ख़ान्दान-ए वली अल्लाह के आफ़्ताबे रोशन शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी अपने फ़तवा सफ़हा नंबर 163 में लिखते हैं और माहे रबी'अल-अव्वल की बरकत हज़ूर नबी अक्रम ﷺ की मिलाद शरीफ की वजह से है जितना उम्मत की तरफ़ से आप ﷺ की बरगाह में हदियाह, दुरूद ओ सलाम और ता'म का नज़्राना पेश किया जाए, इतना ही आप ﷺ की बरकातों का उन पर नज़ूल होता है।
नवाब सिद्दीक़ हसन ख़ान भोपाली (1307 हिज्री): ग़ैर मुक़ल्लिदीन के नाम वर आलिमे-दीन नवाब सिद्दीक़ हसन ख़ान भोपाली ने मिलाद शरीफ मनाने की बाबत लिखा। इसमें क्या बुराई है कि अगर हर रोज़ ज़िक्रे हज़रत ﷺ नहीं कर सकते तो असबा' (हफ्ता) या हर महीने में इंतिज़ाम इसका करें कि किसी न किसी दिन बैठ कर ज़िक्र या वा'ज़ सीरत, विलादत, और वफ़ात आन हज़रत ﷺ का करें, फिर अय्याम-ए-माह रबी' अल-अव्वल को भी ख़ाली नह छोड़ें, और उन रिवायत, अख़बर, और आसार को पढ़ें पढ़ाए जो सही तौर पर साबित है।
आगे लिखता है जिसको हज़रत ﷺ के मिलाद का हाल सुन कर फ़र्हत हासिल नह हो और शुक्र ख़ुदा की हासिल पर इस निमत के नह करें वोह मुसल्लमान नहीं।" हवाला : "भोपाली अल-शमामा अल-'अम्बरीया मिन-मौलूद ख़ैर अल-बरिय्यह" पेज 12.
हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की (137-1233 हिज्री): हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की चारों सिलसिलों तरीक़त में बई'त करते थे और दारुल उलूम देवबंद के बानी क़ासिम ननौतवी (1297-1248 हिज्री) और दारुल उलूम देवबंद के सरपरस्त रशीद अहमद गंगोही (1244-1323 हिज्री) आप के मुरीद और ख़ुलफ़ा, थे हज़रत पीर मेहर अली शाह गोलरवी (1356-1271 हिज्री), मौलाना महमूद उल हसन देवबंदी और इन दूसरे उलमा और मशाइख़ का शुमार हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की के ख़ुलफ़ा में होता था।
शमाएम इमदादियाह के सफ़हा नंबर 47 और 50 पर दर्ज है कि हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की ने एक सवाल मिलाद-उन-नबी ﷺ के इनिक़ाद के बारे में उनकी क्या राय है? के जवाब में फ़रमाया, 'मौलूद शरीफ तमाम अहल-ए-हरमैन शरीफैन करते हैं, इस क़दर हमारे वासते हुज्जत काफ़ी है और हज़रत रिसालत माअब ﷺ का ज़िक्र कैसे मज़मूम हो सकता है? अल्बत्ता जो ज़ियादतियां लोगों ने इख़्तियार की है न चाहिए और क़याम के बारे में कुछ नहीं कहता। हां मुझको एक क़ैफ़ियत क़याम में हासिल होती है।" (उद्धरण: इमदादुल्लाह शमाएम इमदादियाह पेज नंबर 47-) किसी ने दरियाफ्त किया कि मिलाद के बारे में उनका क्या आक़ीदा है और क्या मालूम है? इस पर उन्होंने जवाब दिया "फ़क़ीर का मशरब है कि महफ़िले मिलाद में मौलूद में शारिक होता बल्कि बरक़ात का ज़रिया समझ कर हर साल मुनक्क़िद करता हूँ और क़याम में लुत्फ़ और लज़्ज़त पाता हूँ।
नोट: जो लोग महफ़िले मिलाद को बिदअत मज़मूमा और ख़िलाफ़े शरीआह कहते हैं उन्हें कम अज़ कम अपने शैख़ और मुर्शिद का ही लिहाज़ करते हुए इस रवैये से ग़ुरेज़ करना चाहिए।"